हिंदी कविता

पुष्प की अभिलाषा  

चाह नहीं मैं सुरबाला के
 गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में
 बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
 पर, हे हरि, डाला जाऊँ
 चाह नहीं, देवों के शिर पर,
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ!
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
 जिस पथ जावें वीर अनेक।


आज नयन के बँगले में 

आज नयन के बँगले में,
संकेत पाहुने आये री सखि!

जी से उठे, कसक पर बैठे,
और बेसुधी- के बन घूमें,
युगल-पलक ले चितवन मीठी,
पथ-पद-चिह्न चूम, पथ भूले, 
दीठ डोरियों पर माधव को।
 बार-बार मनुहार थकी मैं,
पुतली पर बढ़ता-सा यौवन,
ज्वार लुटा न निहार सकी मैं !
दोनों कारागृह पुतली के,
सावन की झर लाये री सखि!

आज नयन के बँगले में,
संकेत पाहुने आये री सखि !



 उपालम्भ

क्यों मुझे तुम खींच लाये?

एक गो-पद था, भला था,
कब किसी के काम का था?
क्षुद्ध तरलाई गरीबिन, 
अरे कहाँ उलीच लाये?

एक पौधा था, पहाड़ी
 पत्थरों में खेलता था,
जिये कैसे, जब उखाड़ा
 गो अमृत से सींच लाये!

एक पत्थर बेगढ़-सा
 पड़ा था जग-ओट लेकर,
उसे और नगण्य दिखलाने,
नगर-रव बीच लाये?

एक वन्ध्या गाय थी,
हो मस्त बन में घूमती थी,
उसे प्रिय! किस स्वाद से
 सिंगार वध-गृह बीच लाये?

एक बनमानुष, बनों में,
कन्दरों में, जी रहा था;
उसे बलि करने कहाँ तुम,
ऐ उदार दधीच लाये?

जहाँ कोमलतर, मधुरतम,
वस्तुएँ जी से सजायीं,
इस अमर सौन्दर्य में, क्यों
 कर उठा यह कीच लाये?

चढ़ चुकी है, दूसरे ही
 देवता पर, युगों पहले,
वही बलि निज-देव पर देने
 दृगों को मींच लाये?

क्यों मुझे तुम खींच लाये?


अंजलि के फूल गिरे जाते हैं 

अंजलि के फूल गिरे जाते हैं
 आये आवेश फिरे जाते हैं॥

 चरण ध्वनि पास - दूर कहीं नहीं,
साधें आराधनीय रही नहीं,
उठने, उठ पड़ने की बात रही,
साँसों से गीत बे-अनुपात रही॥

 बागों में पंखनियाँ झूल रहीं,
कुछ अपना, कुछ सपना भूल रहीं,
फूल-फूल धूल लिये मुँह बाँधे,
किसको अनुहार रही चुप साधे॥

 दौड़ के विहार उठो अमित रंग,
तू ही `श्रीरंग' कि मत कर विलम्ब,
बँधी-सी पलकें मुँह खोल उठीं,
कितना रोका कि मौन बोल उठीं,
आहों का रथ माना भारी है,
चाहों में क्षुद्रता कुँआरी है॥

 आओ तुम अभिनव उल्लास भरे,
नेह भरे, ज्वार भरे, प्यास भरे,
अंजलि के फूल गिरे जाते हैं,
आये आवेश फिरे जाते हैं॥


एक तुम हो 

गगन पर दो सितारे: एक तुम हो,
धरा पर दो चरण हैं: एक तुम हो,
‘त्रिवेणी’ दो नदी हैं! एक तुम हो,
हिमालय दो शिखर है: एक तुम हो,

रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा,
कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा।

 कला के जोड़-सी जग-गुत्थियाँ ये,
हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये,
तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते,
कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते।

 तुझे सौगंध है घनश्याम की आ,
तुझे सौगंध भारत-धाम की आ,
तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ,
कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ।

 तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा,
तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा,
तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा,
तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा

 तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर,
तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर।

 रहे मन-भेद तेरा और मेरा, अमर हो देश का कल का सबेरा,
कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा; कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा,

प्रलय की आह युग है, वाह तुम हो,
जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो।


तान की मरोर 

तू न तान की मरोर
 देख, एक साथ चल,
तू न ज्ञान-गर्व-मत्त--
शोर, देख साथ चल।

 सूझ की हिलोर की
 हिलोरबाज़ियाँ न खोज,
तू न ध्येय की धरा--
गुंजा, न तू जगा मनोज।

 तू न कर घमंड, अग्नि,
जल, पवन, अनंग संग
 भूमि आसमान का चढ़े
 न अर्थ-हीन रंग।

 बात वह नहीं मनुष्य
 देवता बना फिरे,
था कि राग-रंगियों--
घिरा, बना-ठना फिरे।

 बात वह नहीं कि--
बात का निचोड़ वेद हो,
बात वह नहीं कि-
बात में हज़ार भेद हो।

 स्वर्ग की तलाश में
 न भूमि-लोक भूल देख,
खींच रक्त-बिंदुओं--
भरी, हज़ार स्वर्ण-रेख।

 बुद्धि यन्त्र है, चला;
न बुद्धि का ग़ुलाम हो।
 सूझ अश्व है, चढ़े--
चलो, कभी न शाम हो।

 शीश की लहर उठे--
फसल कि, एक शीश दे।
 पीढ़ियाँ बरस उठें
 हज़ार शीश शीश ले।

 भारतीय नीलिमा
 जगे कि टूट-टूट बंद
 स्वप्न सत्य हों, बहार--
गा उठे अमंद छन्द।

बलि-पन्थी से 

मत व्यर्थ पुकारे शूल-शूल,
कह फूल-फूल, सह फूल-फूल।
 हरि को ही-तल में बन्द किये,
केहरि से कह नख हूल-हूल।

 कागों का सुन कर्त्तव्य-राग,
कोकिल-काकलि को भूल-भूल।
 सुरपुर ठुकरा, आराध्य कहे,
तो चल रौरव के कूल-कूल।

 भूखंड बिछा, आकाश ओढ़,
नयनोदक ले, मोदक प्रहार,
ब्रह्यांड हथेली पर उछाल,
अपने जीवन-धन को निहार।

फुंकरण कर, रे समय के साँप 

फुंकरण कर, रे समय के साँप
 कुंडली मत मार, अपने-आप।

 सूर्य की किरणों झरी सी
 यह मेरी सी,
यह सुनहली धूल;
लोग कहते हैं
 फुलाती है धरा के फूल!

इस सुनहली दृष्टि से हर बार
 कर चुका-मैं झुक सकूँ-इनकार!

मैं करूँ वरदान सा अभिशाप
 फुंकरण कर, रे समय के साँप !

क्या हुआ, हिम के शिखर, ऊँचे हुए, ऊँचे उठ
 चमकते हैं, बस, चमक है अमर, कैसे दिन कटे!
और नीचे देखती है अलकनन्दा देख
 उस हरित अभिमान की, अभिमानिनी स्मृति-रेख।
 डग बढ़ाकर, मग बनाकर, यह तरल सन्देश
 ऊगती हरितावली पर, प्राणमय लिख लेख!
दौड़ती पतिता बनी, उत्थान का कर त्याग
 छूट भागा जा रहा उन्मत्त से अनुराग !
मैं बनाऊँ पुण्य मीठा पाप
 फुंकरण कर रे, समय के साँप।

 किलकिलाहट की बाजी शहनाइयाँ ऋतुराज
 नीड़-राजकुमार जग आये, विहंग-किशोर!
इन क्षणों को काटकर, कुछ उन तृणों के पास
 बड़ों को तज, ज़रा छोटों तक उठाओ ज़ोर।
 कलियाँ, पत्ते, पहुप, सबका नितान्त अभाव
 प्राणियों पर प्राण देने का भरे से चाव

 चल कि बलि पर हो विजय की माप।
 फंकुरण कर, रे समय के साँप।।


कैसी है पहिचान तुम्हारी

कैसी है पहिचान तुम्हारी,
राह भूलने पर मिलते हो!

पथरा चलीं पुतलियाँ, मैंने
 विविध धुनों में कितना गाया,
दायें-बायें, ऊपर-नीचे
 दूर-पास तुमको कब पाया?

धन्य-कुसुम ! पाषाणों पर ही,
तुम खिलते हो तो खिलते हो।
 कैसी है पहिचान तुम्हारी,
राह भूलने पर मिलते हो!!

किरणों प्रकट हुए, सूरज के
 सौ रहस्य तुम खोल उठे से,
किन्तु अँतड़ियों में गरीब की
 कुम्हलाये स्वर बोल उठे से!

काँच-कलेजे में भी करूणा-
के डोरे ही से खिलते हो।
 कैसी है पहिचान तुम्हारी
 राह भूलने पर मिलते हो॥

 प्रणय और पुस्र्षार्थ तुम्हारा,
मनमोहिनी धरा के बल हैं,
दिवस-रात्रि, बीहड़-बस्ती सब,
तेरी ही छाया के छल हैं।

 प्राण, कौन से स्वप्न दिख गये,
जो बलि के फूलों खिलते हो।
 कैसी है पहिचान तुम्हारी,
राह भूलने पर मिलते हो।।

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